आईना और मैं…

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घड़ी के काँटों से इस दौड़ में, अक्सर हम ख़ुद से ही आगे निकल जाते हैं |

इसी कश्मकश को समर्पित चन्द पंक्तियाँ आपकी नज़र करता हूँ…


ख़ुद से बिछड़े, जाने कब अरसा हो चला,

के आज अपना ही अक्स, यूँ अन्जान सा क्यूँ है,

वो मैं ही था, और ये भी मैं हूँ,

फिर आईना यूँ ,परेशान सा क्यूँ है,

निकल पड़े थे, समय-की-लहरों पर सवार होकर,

फिर देखकर मंज़िल, धड़कानों में उफ़ान सा क्यूँ है,

के ढल ही जाता है हर शक्स, वक़्त के इन सांचों में,

फिर ख़ुद से अजनबी हो जाने का, यूँ  इल्ज़ाम सा क्यूँ है,

शक्ल-ओ-सूरत से हम मुख्तलिफ न सही,

फिर ज़ह्न-ओ-दिल इस जिस्म में, महमान सा क्यूँ है,

के आज भी ये दिल नूर-ए-पाक़ सा रोशन है,

फिर मिलकर अपनी ही परछाई से, यूँ हैरान सा क्यूँ है,

यूँ हैरान सा क्यूँ है…

***

This post is written for Indipire Edition 103. One fine day, you bump into someone who resembles you, and you realise that he/she is your twin. How would you react? #ImaginativeStory.

20 thoughts on “आईना और मैं…

  1. That was really very well penned.. The thought is a reality in today’s times. In this mad race, we are leaving our real desires behind..we are becoming robotic.
    What a world it would have been, if an individual was ushered to be and do what s/he really wanted in life.

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  2. कितना सच है हम दुनियादारी की दौड़ धुप स्वयं को ही भूल चुके हैं।। कैसे आते हैं ये सब आपके दिमाग में।। अभूतपूर्व

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    1. कविता हमारे चारों ओर है बस ख्यालों को शब्द मिलने चाहिए । और कभी कभी मेरी भी किस्मत साथ दे जाती है ।☺

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