इस दिल से उठती आग की चन्द लपटें
अक्सर पूछता हूँ इन तन्हाई से ,
अपने हैं या समय, जो अपनों को यूँ सताते हैं;
आती है कठिनाई जब उनके बच्चों पर,
अल्लाह/ भगवान/ यीशु…जाने कहाँ छुप जाते हैं;
आज़माता है वो भी केवल मासूमों को,
और सक्षम बस शोक जताते हैं;
अजब-गज़ब हैं लोग यहाँ के,
अहम् को तज नहीं पाते हैं;
अफ़सोस जताकर facebook पर,
अपनों को भूल ही जाते हैं;
आया है कलयुग…स्मरण रहे,
अब्र भी यहाँ कहर ही ढाते हैं;
आधे-पौने से शहर हैं क्या,
आमची-मुंबई को भी ये डूबा जाते हैं;
अस्त-व्यस्त है जन-जीवन,
अब चेन्नई, तब उत्तराखंड-कश्मीर याद आते हैं;
आधे डूबे से लोग यहाँ, जीने की इस जंग में,
आँसू भी अपने पी जाते हैं;
अस्थायी है सब गर याद रहे, तो;
अर्थ निर्रथक हो जाते हैं;
अल्प विराम की तरह रुकते हैं,
और हँसकर आगे बढ़ जाते हैं…
हँसकर आगे बढ़ जाते हैं ||
This post is a part of Write Over the Weekend, an initiative for Indian Bloggers by BlogAdda to write a 15 line poem on ‘It’s About Others’ starting each line with the first initial of your first name.
This post is also part of blogging for indichange initiative of Indiblogger for Chennai Flood victims.