घड़ी के काँटों से इस दौड़ में अक्सर हम ख़ुद से ही आगे निकल जाते हैं | भूल जाते हैं कि हम कौन हैं, हम क्या चाहते हैं और इसी जद्दोजहत में अपनी परछाई से भी अजनबी हो जाते हैं |
ख़ुद से बिछड़े, जाने कब अरसा हो चला,
के आज अपना ही अक्स, यूँ अन्जान सा क्यूँ है ?
वो मैं ही था, और ये भी मैं हूँ,
फिर आईना यूँ, परेशान सा क्यूँ है ?
निकल पड़े थे, समय-की-लहरों पर होकर सवार ,
फिर देखकर मंज़िल, धड़कानों में उफ़ान सा क्यूँ है ?
के ढल ही जाता है हर शख़्स, वक़्त के इन सांचों में,
फिर ख़ुद से अजनबी हो जाने का, यूँ इल्ज़ाम सा क्यूँ है ?
शक्ल-ओ-सूरत से हम मुख्तलिफ न सही,
फिर ज़ह्न-ओ-दिल इस जिस्म में, महमान सा क्यूँ है ?
के आज भी ये दिल नूर-ए-पाक़ सा रोशन है,
फिर मिलकर अपनी ही परछाई से, यूँ हैरान सा क्यूँ है ?
यूँ हैरान सा क्यूँ है ??
♥ ♥ ♥ doc2poet
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